महाराष्ट्र: भाषाई मर्दानगी सिर्फ हिंदी भाषियों पर क्यों?
क्या मराठी अस्मिता की लड़ाई अब सिर्फ हिंदीभाषियों से है?
राजेश सिन्हा
मुंबई, 9 अप्रैल – महाराष्ट्र की सियासत में ‘मराठी मानूस’ की गूंज कोई नई नहीं। लेकिन जब ये पहचान की लड़ाई, सिर्फ और सिर्फ हिंदी भाषियों के खिलाफ तल्खी बन जाए, तो सवाल उठता है — क्या ये वाकई भाषा की रक्षा है, या एकतरफा गरीब, निरीह और प्रतिउत्तर नहीं देने वाले हिंदी भाषियों पर मर्दानगी का प्रदर्शन?
मुंबई की सड़कों पर ऑटोवालों से भाड़े के विवाद को, कॉल सेंटर्स या अन्य कार्यस्थल पर हिंदी भाषी कर्मचारियों से निजी विवाद को, और अब तो गृह संकुलों के आस पड़ोस में सामान इधर से उधर रखने के विवाद को हिंदी बनाम मराठी मुद्दा बनाना आम हो गया है .
हिंदीभाषियों के खिलाफ ‘टारगेटेड टेंशन’ क्यों?
उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से काम की तलाश में आने वाले लाखों लोग आज मुंबई और पुणे की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। लेकिन सिर्फ कुछ लोगोके राजनीति फायदे के लिए उत्तर भारतीयो की उपस्थिति को महाराष्ट्र के लिए एक ‘सांस्कृतिक खतरा’ क्यों बना दिया जाता है?
राजनीतिक पार्टियों को ‘बाहरी’ का मुद्दा उठाने में हिंदीभाषी सबसे आसान निशाना क्यों लगते हैं? क्या बंगाली, गुजराती, मलयाली या तमिल भाषी लोगों पर कभी ऐसी ही भाषाई मर्दानगी दिखाई गई है ?
भाषाई गौरव ज़रूरी है, लेकिन क्या वह सम्मान से हासिल नहीं किया जा सकता? अगर मराठी संस्कृति इतनी ही मजबूत है, तो क्या उसे किसी दूसरी भाषा से डरना चाहिए?
भाषा की लड़ाई तब खतरनाक हो जाती है जब वह संवाद के बजाय दबाव बन जाए।