मोदी जी की जीत और परिवारवाद युग का अंत
(कर्ण हिन्दुस्तानी )
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने जहां एक बार फिर साबित कर दिया है कि राजनीती में सभी तरह के पहलुओं पर नज़र रखनी ज़रूरी होती है वहीँ राजनीती में परिवारवाद को चिर समय तक चलाया नहीं जा सकता। किसी भी नेता की कोई सीट परम्परागत नहीं हो सकती। बीजेपी का अकेले दम पर बहुमत हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि अब तक कांग्रेस यह करिश्मा कई बार कर चुकी है। बल्कि बीजेपी का अकेले दम पर बहुमत हासिल करना इस बात का संकेत है कि अब का युवा और मध्यम उम्र का मतदाता अपने देश की संसद में नए चेहरे देखना चाहता है।
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वह अतिआधुनिक भारत देखना चाहता है। युवा की राजनीतिक परख बढ़ रही है वह इसके बेटे उसके पोते को राजनीती में देखने के बजाए अपने गली के किसी पहचान वाले राजनीतिज्ञ को संसद अथवा विधानसभा में बैठते देखना चाहता है। देश के लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी को भी यह बात समझ आ गई। शायद इसलिए उन्होंने कहा कि अब गाँधी उपनाम के बजाए किसी अन्य उपनाम वाले को कांग्रेस की कमान सौंपनी होगी। यही बात बसपा और सपा समेत अन्य दलों को भी आत्मसात करनी होगी। अपने घर से राजनीतिक दल चलाने के दिन अब खत्म होने की कगार पर हैं।
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कार्यकर्ताओं के बल पर सामान्य से ख़ास बनने वाले लोगों को कार्यकर्ताओं की अनदेखी महंगी पड़ रही है। राहुल गाँधी , ज्योतिर्यादित्य सिंधिया और डिम्पल यादव की पराजय इस बात का संकेत है कि कार्यकर्ताओं की अनदेखी भविष्य की राजनीती के लिए खतरनाक है। आज की तारीख में यदि सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की बात करें तो यादवों का राजनीतिक दल के रूप में सपा कीपहचान है मगर इसमें प्रमुख पदों पर मुलायम परिवार के यादव ही हैं। आम यादव किधर है ?
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बसपा की बात करें तो एक सतीश मिश्रा को छोड़ दें तो मायावती ही सर्वेसर्वा हैं। राजनीतिक दल खानदानी जायदाद नहीं हो सकते। बिहार में यदि लालू प्रसाद यादव ने अपने परिवार के बजाए अपने कार्यकर्ताओं को चुनावी मैदान में उतारा होता और खुद किंग मेकर की रहे होते तो शायद नतीज़ा बदल सकता था। देवेगौड़ा की पराजय भी इन्ही कारणों से हुई। ममता की बंगाल में पराजय का कारण भी परिवारवाद ही है कुछ हद तक।
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इन सभी दलों ने मोदी की गलतियां निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी मगर मोदी और अमित शाह ने जब मौजूदा सांसदों की टिकिट काट कर नए चेहरे उतारे तो उससे सभी को सबक लेना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस के पास भोपाल में दिग्विजय सिंह के अलावा क्या कोई चेहरा नहीं था ? राहुल गाँधी के सिवा कांग्रेस ने ऐसा कोई चेहरा तैयार नहीं किया जो राहुल की अनुपस्थिति में जनाधार कायम रख सके। ऐसे में विपक्षियों की पराजय तो निश्चित ही थी। अब पांच सालों में भी यदि विपक्षी दलों ने अपनी नीतियां नहीं बदलीं तो फिर पराजय निश्चित है।
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