किधर गए मी टू वाले ?
(कर्ण हिन्दुस्तानी )
कई दिग्गजों को बदनाम करने के पश्चात मी टू कहने वाली कन्याओं का आज कल कोई पता नहीं चल रहा है। बरसों पहले हुई किसी बात से नाराज़ होकर अब हंगामा करने वाली युवतियों के मन में क्या था ?कोई नहीं जानता , इस मी टू ने ना सिर्फ भारतीय राजनीती को बदनाम किया बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को भी बदनुमा दाग लगा दिया। फ़िल्मी दुनिया तो खैर इस तरह की बातों को लेकर अपने जन्म से ही परेशान है। सवाल यह उठता है कि मौजूदा समाज में और क़ानून में सिर्फ महिलाओं को ही क्यों ज्यादा महत्व दिया जाता है। बरसों तक बिना शादी किये साथ में जिस्मानी संबंध बनाने के बाद कोई महिला पुलिस स्टेशन पहुँच जाती है और शादी का झांसा देकर बलात्कार करने का आरोप लगा देती है।
कानून भी एकतरफा कार्रवाई करते हुए पुरुष को ही पहली नज़र में दोषी करार देता है, क्या इस तरह के मामलों में संबंधित महिला दोषी नहीं होती ? जो अपना करियर बनाने के लिए हर हद पार करने को उतावली रहती है। बाद में अनबन होने पर छेड़खानी अथवा बलात्कार का आरोप लगा देतीं हैं। बालिग़ होने के बावजूद खुद को अपने पुरुष मित्र के हवाले करने वाली युवतियों को भी अब सवालों के कटघरे में खड़ा करने का समय आ गया है। हर बार पुरुष को ही दोषी मानना किस हद तक उचित है ? कई मामलों में देखा गया है कि मीडिया में तथाकथित शिकायतकर्ता महिला का नाम प्रकाशित नहीं किया जाता। जबकि आरोपी पुरुष का नाम पता सब जगह प्रचारित कर दिया जाता है।
जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता तब तक पुरुष को दोषी कैसे करार दिया जाता है ? मी टू वाले मामलों में भी सिर्फ और सिर्फ पुरुष ही बदनाम हुए हैं। जबकि कई मामले ऐसे हैं जिनमें महिलाओं ने पुरुषों का जिस्मानी और आर्थिक शोषण किया है। ऐसे मामलों को दर्ज़ ही नहीं किया जाता। यदि भारतीय संविधान में पुरुष और स्त्री को सामान दर्ज़ा दिया गया है तो फिर सिर्फ और सिर्फ पुरुषों को ही दोषी क्यों करार दिया जाता है। क्या पुरुषों की कोई गरिमा नहीं है ? मी टू वाले मामले में अब जो अचानक मरघट सी शांति छायी हुई है वह इस मामले में किसी बड़ी साज़िश का संकेत दे रही है। इसलिए अब यह सवाल वाज़िब है कि किधर गए मी टू वाले ?